ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: |
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते || 2||
ज्ञानम्-ज्ञान; ते-तुमसे; अहम्-मैं; स–सहित; विज्ञानम्-विवेक; इदम्-यह; वक्ष्यामि-प्रकट करना; अशेषत:-पूर्णरूप से; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; न-नहीं; इह-इस संसार में; भूयः-आगे; अन्यत्-अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्-जानने योग्य; अवशिष्यते शेष रहता है।
BG 7.2: अब मैं तुम्हारे समक्ष उस ज्ञान और विज्ञान को पूर्णतः प्रकट करूँगा जिसको जान लेने पर इस संसार में तुम्हारे जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहेगा।
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इन्द्रियों, मन और बुद्धि से अर्जित जानकारी को ज्ञान कहते हैं। आध्यात्मिक अभ्यास के परिणामस्वरूप अपने अन्तःकरण में प्राप्त ज्ञान को 'विज्ञान' कहा जाता है। विज्ञान बौद्धिक ज्ञान नहीं है क्योंकि इसकी प्रतीति प्रत्यक्ष अनुभव से होती है। उदाहरणार्थ यदि हम बंद बोतल में रखी शहद की मिठास की प्रशंसा सुनते हैं, किन्तु सुनी-सुनाई बात से केवल सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त होता है। किन्तु जब हम बोतल के ढक्कन को खोलकर शहद का स्वाद चखते हैं तब हम उसकी मिठास का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। उसी तरह गुरु और शास्त्रों से प्राप्त सैद्धान्तिक जानकारी 'ज्ञान' है और जब हम उस ज्ञान के अनुसार साधना का अभ्यास करते हुए अपने मन को शुद्ध करते हैं तब हमारे भीतर अनुभूति के रूप में प्रकाशित ज्ञान 'विज्ञान' कहलाता है। जब वेदव्यास ने श्रीमद्भागवतम् लिखने का निर्णय लिया तब उसमें प्रकृति, भगवान की महिमा और भक्ति के विषय का वर्णन करने के लिए वे ज्ञान को आधार मानने में संतुष्ट नहीं थे।
भक्तियोगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले।
अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम्।।
(श्रीमद्भागवतम्-1.7.4)
"भक्तियोग द्वारा वेदव्यास जी ने लौकिक भावनाओं से रहित होकर अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके भगवान और उनकी बाह्यशक्ति माया के पूर्ण दर्शन प्राप्त किये। तब ऐसी अनुभूति से युक्त होकर उन्होंने भागवत की रचना की। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि वे अर्जुन के भीतर भगवान संबंधी सैद्धान्तिक ज्ञान प्रकाशित करेंगे और उसे भगवान का वास्तविक ज्ञान प्रदान करने में भी उसकी सहायता करेंगे। इस ज्ञान का बोध हो जाने पर फिर उसके लिए कुछ जानना शेष नहीं रहेगा।